महात्मा ज्योतिबा फुले (ज्योतिराव गोविंदराव फुले) को 19वी. सदी का प्रमुख समाज सेवक माना जाता है। उन्होंने भारतीय समाज में फैली अनेक कुरूतियों को दूर करने के लिए सतत संघर्ष किया। अछुतोद्वार, नारी-शिक्षा, विधवा – विवाह और किसानो के हित के लिए ज्योतिबा ने उल्लेखनीय कार्य किया है। ज्योतिबा जब मात्र एक वर्ष के थे तभी उनकी माता का निधन हो गया था। ज्योतिबा का लालन – पालन सगुनाबाई नामक एक दाई ने किया। सगुनाबाई ने ही उन्हें माँ की ममता और दुलार दिया. 7 वर्ष की आयु में ज्योतिबा को गांव के स्कूल में पढ़ने भेजा गया। लेकिन जातिवाद की वजह से उन्हें स्कूल छोड़ना पड़ा। स्त्रियों की दशा सुधारने और उनकी शिक्षा के लिए ज्योतिबा ने 1848 में एक स्कूल खोला। यह इस काम के लिए देश में पहला विद्यालय था। लेकिन उन्हें जब बालिकाओं के लिए अध्यापिका नहीं मिली तो उन्होंने इस काम के लिए अपनी पत्नी सावित्री को तैयार किया लेकिन उसके बाद भी लोगों ने उन्हें इस काम के लिए रोका परन्तु ज्योतिबा फुले जब नहीं रुके तब उनलोगों ने उनके पिता पर दबाव दाल कर उन्हें घर से निकाल दिया इससे कुछ समय के लिए उनका काम रुका अवश्य, पर शीघ्र ही उन्होंने एक के बाद एक बालिकाओं के तीन स्कूल खोल दिए। फुले समाज की कुप्रथा, अंधश्रद्धा की जाल से समाज को मुक्त करना चाहते थे। अपना सम्पूर्ण जीवन उन्होंने स्त्रियों को शिक्षा प्रदान कराने में, स्त्रियों को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक करने में व्यतीत किया। उन्होंने कन्याओं के लिए भारत देश की पहली पाठशाला पुणे में बनाई। ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई फुले के कोई संतान नहीं थी इसलिए उन्होंने एक विधवा के बच्चे को गोद लिया था | निर्धन तथा निर्बल वर्ग को न्याय दिलाने के लिए ज्योतिबा ने ‘सत्यशोधक समाज’ 1873 मे स्थापित किया। उनका यह भाव देखकर 1888 में उन्हें ‘महात्मा’ की उपाधि दी गई थी। 1988 में उन्हें लकवा घेर लिया और फिर 28 नवंबर 1890 को उनकी मृत्यु पुणे में हो गयी।