11 फरवरी 1750 को जन्में तिलका का बचपन पहाड़ों, जंगलों की गोद में ही गुजरा। इनके पिता का नाम सुंदरा मुर्मू था। वैसे उनका वास्तविक नाम ‘जबरा पहाड़िया’ ही था। तिलका मांझी नाम तो उन्हें ब्रिटिश सरकार ने दिया था।
तिलका ने हमेशा से ही अपने जंगलो को लुटते और अपने लोगों पर अत्याचार होते हुए देखा था। गरीब आदिवासियों की भूमि,
खेती, जंगली वृक्षों पर अंग्रेज़ी शासकों ने कब्ज़ा कर रखा था। आदिवासियों और पर्वतीय सरदारों की लड़ाई अक्सर अंग्रेज़ी सत्ता से रहती थी, लेकिन पर्वतीय जमींदार वर्ग अंग्रेज़ी सत्ता का साथ देता था।
साल 1770 में जब भीषण अकाल पड़ा, तो तिलका ने अंग्रेज़ी शासन का खज़ाना लूटकर आम गरीब लोगों में बाँट दिया। उनके इन नेक कार्यों और विद्रोह की ज्वाला से और भी आदिवासी उनसे जुड़ गये। इसी के साथ शुरू हुआ उनका ‘संथाल हुल’ यानी कि आदिवासियों का विद्रोह। उन्होंने अंग्रेज़ों और उनके चापलूस सामंतो पर लगातार हमले किए और हर बार तिलका मांझी की जीत हुई।
साल 1784 में उन्होंने भागलपुर पर हमला किया और 13 जनवरी 1784 में ताड़ के पेड़ पर चढ़कर घोड़े पर सवार अंग्रेज़ कलेक्टर ‘अगस्टस क्लीवलैंड’ को अपने जहरीले तीर का निशाना बनाया और मार गिराया। कलेक्टर की मौत से पूरी ब्रिटिश सरकार सदमे में थी।
इस बात का बदला लेने के लिए ‘फूट डालो और राज करो’ का सहारा लेकर तिलका मांझी को पकड़ना चाहा। लेकिन किसी तरह वे बच निकले और उन्होंने पहाड़ियों में शरण लेकर अंग्रेज़ों के खिलाफ़ छापेमारी जारी रखी। ऐसे में अंग्रेज़ों ने पहाड़ों की घेराबंदी करके उन तक पहुंचने वाली तमाम सहायता रोक दी। इसकी वजह से तिलका मांझी को अन्न और पानी के अभाव में पहाड़ों से निकल कर लड़ना पड़ा और एक दिन वह पकड़े गए। कहा जाता है कि तिलका मांझी को चार घोड़ों से घसीट कर भागलपुर ले जाया गया। 13 जनवरी 1785 को उन्हें एक बरगद के पेड़ से लटकाकर फांसी दे दी गई थी।