समाधि पर्व को लेकर जमुआ के खड़कडीहा स्थित लंग़टा बाबा के समाधि स्थल पर सोमवार सुबह 6 बजे से ही आस्था का सैलाब उमड़ पड़ा। यहां चादर पोशी के लिए सुबह से ही श्रद्धालुओं का ताता लगा रहा और यह क्रम दिन भर चलता रहेगा।बताया गया कि खरगडीहा में स्थित संत शिरोमणि लंगटा बाबा की समाधि स्थल पर सभी धर्मों के लोगों की अटूट श्रद्धा हैं। यही वजह है कि प्रति दिन हिंदू मुस्लिम, सिख ईसाई सभी धर्मों के लोग यहां आकर माथा टेकते हैं। लेकिन प्रत्येक वर्ष पौष मास पुर्णिमा के दिन यहां भक्ति व आस्था का जन सैलाब उमड़ पड़ता है। इस दिन विभिन्न राज्यों के श्रद्धालु चादर पोशी करने यहां पहुंचते हैं।
कालजई संत शिरोमणि लंगटा बाबा ने वर्ष 1910 में महासमाधि में प्रवेश किया था , तब से अब तक बाबा के भक्तों की संख्या में काफी इजाफा हुआ है। लंगटा बाबा के खरगडीहा आगमन के बारे में कहा जाता है कि 1870 के दशक में नागा साधुओं की एक टोली के साथ वे यहां पहुंचे थे। उस वक्त खरगडीहा परगणा हुआ करता था। कुछ दिन के पड़ाव के बाद नागा साधुओं की टोली अपने गंतव्य की ओर प्रस्थान कर गए, लेकिन एक नागा साधु थाना परिसर में ही नंग धड़ंग अवस्था में धुनी रमाए बैठा रहा। कालांतर में अपने चमत्कारिक गुणों के कारण यही साधु लंगटा बाबा के नाम से विख्यात हुए। बाबा की अद्भुत शक्तियों के बारे में बताया जाता है कि एक दिन एक कुत्ता इनके पास आया उनका शरीर जख्मों से भरा हुआ था । शरीर से बह रहे मवाद को देखकर उन्होंने उसके पास कुछ फेंका और कहा ले महाराज तू भी खा लें। उसके बाद कुत्ता पुरी तरह निरोग हो गया ।
लंगटा बाबा सिर्फ पीड़ित मानवता के लिए ही नहीं बल्कि समस्त प्राणियों के लिए दया की मूर्ति थे । उनके समय में एक बार खरगडीहा में भयंकर रूप से प्लेग रोग फैला। लोग अपने अपने घरों को छोड़कर भागने लगे। बाबा सेवक भी भागने की तैयारी में थे । तभी उन्होंने कहा देखो घर दवाइयों से भरा है । इसके बाद क्षेत्र में प्लेग रोग समाप्त हो गया था। कहते हैं कि श्रद्धालुओं से प्राप्त खाने पीने या अन्य सामानों को उनके स्वीकार करने के तरीके भी नायाब थे , बाबा जिसे स्वीकार नहीं करते उसे ठंडी करो महाराज की आज्ञा के साथ एक कुएं में फेंकवाते । वह कुआं आज भी समाधि परिसर में अवस्थित है। । वर्ष 1910 में पौष मास पुर्णिमा के दिन जीव आत्माओं के साधक संत शिरोमणि लंगटा बाबा ने अपना भौतिक शरीर का त्याग किया था ।
इस वक्त क्षेत्र के हिंदू व मुसलमानों को ऐसा लग रहा था कि उनका सबकुछ लुट गया । बाबा के शरीर के अंतिम संस्कार के लिए भी दोनों समुदायों के लोग आपस में उलझ पड़े थे । बताते है कि तब क्षेत्र के प्रबुद्ध जनों ने विचार विमर्श के बाद दोनों धर्म के रीति रिवाज से अंतिम संस्कार किया था । उसके बाद से प्रत्येक वर्ष पौष मास पुर्णिमा के दिन यहां पर मेला लगता है। और मेला में उमड़ने वाली लाखों की भीड़ देखकर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि पीड़ित मानवता की रक्षा करने वाले संत शिरोमणि आज भी आमजनों के हृदय में जीवित है।
यहां पर मेले के दौरान व्यवस्थापकों द्वारा आकर्षक साज सज्जा व लंगर की व्यवस्था हर साल की जाती है।यह स्थान पूर्व में खरगडीहा थाना हुआ करता था, बाद में जमुआ थाना बना। सूत्र बताते है कि खरगडीहा के तत्कालीन थाना प्रभारी बहाबुद्दीन खान भी लंगटा बाबा के परम भक्त थे। बाबा की देख रेख में किसी भी प्रकार की कमी नहीं करते थे। इसलिए पहली चादरपोशी का अधिकार भी यहां के थाना प्रभारी को मिला ओर समाधि के बाद से निरंतर जमुआ थाना प्रभारी ही बाबा पर पहली चादर पोशी करते है। इस बार भी जमुआ थाना प्रभारी की चादर पोसी के बाद श्रद्धालुओं ने बाबा के समाधि स्थल पर चादर पोशी शुरू की।