पुणे का ओशो आश्रम बहुत ही अनूठा और आकर्षक है यहाँ प्रकृति और आधुनिकता का अनूठा मेल दिखता है यहाँ का वातावरण लोगों को आकर्षित करता है हर कोई इसके अंदर नहीं जा सकता है, जिसके मन में ओशो के प्रति श्रद्धा और आध्यात्म की ओर आकर्षण हो वही इसमें प्रवेश कर सकता है।
पुणे का ओशो आश्रम की शुरुआत 1974 में हुआ था। शांति व जीवन का उद्द्वेश्य और अर्थ समझने के लिए देश-विदेश से पर्यटक यहाँ पर आते हैं। यहाँ आनेवाले पर्यटकों में देश के लोगों से ज्यादा विदेशी नागरिकों की संख्या होती है। यह आश्रम ओशो की विचारधाराओं के प्रचार प्रसार करने के लिए शुरू हुआ था। यह आश्रम 28 एकड़ में फैला हुआ है। यह सिर्फ आश्रम नहीं है, बल्कि यह रिजॉर्ट है। यहां प्रकृति और आधुनिकता का अनूठा मेल नजर आता है। रिजॉर्ट के भीतर बने बांस के कॉटेज, संगमरमर की पगडंडियां, काले रंग में बनी शानदार बिल्डिंग, पानी के कृत्रिम झरने, चारों तरफ हरियाली, ठंडी हवा, स्विमिंग पूल और आसपास बैठे विदेशी सैलानी आपको यहां बार-बार आने के लिए आकर्षित कर सकते हैं।
सबसे खास बात यह है कि इस आश्रम में प्रवेश करने के लिए हर व्यक्ति का एचआईवी टेस्ट के लिए ब्लड सैंपल लिया जाता है। एड्स टेस्ट के बाद ही उन्हें रिजॉर्ट में प्रवेश की अनुमति मिलती है। यहां घूमने वाले प्रत्येक व्यक्ति को एक आईकार्ड दिया जाता है। रिजॉर्ट में ड्रेस कोड भी लागू है। यहां घूमने आने वालों को मरून और सफेद रंग का एक विशेष ड्रेस दिया जाता है। बाहर से आनेवाले लोगों के लिए रिजार्ट खुलने का समय प्रात: 7 से रात 9.30 बजे तक होता है।
आइए जानते है चंद्रमोहन जैन ओशो कैसे बने
ओशो का जन्म 11 दिसंबर, 1931 को मध्य प्रदेश के कुचवाड़ा में हुआ था। जन्म के वक्त उनका नाम चंद्रमोहन जैन था। उन्होंने अपनी पढ़ाई जबलपुर में पूरी की और बाद में वो जबलपुर यूनिवर्सिटी में लेक्चरर के तौर पर काम करने लगे।
उन्होंने अलग-अलग धर्म और विचारधारा पर देश भर में प्रवचन देना शुरू किया। प्रवचन के साथ ध्यान शिविर भी आयोजित करना शुरू कर दिया। शुरुआती दौर में उन्हें आचार्य रजनीश के तौर पर जाना जाता था। नौकरी छोड़ने के बाद उन्होंने नवसंन्यास आंदोलन की शुरुआत की। इसके बाद उन्होंने खुद को ओशो कहना शुरू कर दिया। पुणे के आश्रम में ही 19 जनवरी 1990 को उनकी मृत्यु हो गई। मौत का आधिकारिक कारण हृदय गति रुकना था, लेकिन उनके कम्यून द्वारा जारी एक बयान में कहा गया है कि अमेरिकी जेलों में कथित जहर देने के बाद “शरीर में रहना नरक बन गया था” इसलिए उनकी मृत्यु हो गई। उनकी राख को पुणे के आश्रम में लाओ त्ज़ु हाउस में उनके नवनिर्मित बेडरूम में रखा गया था। ओशो की समाधि पर स्मृतिलेख है, ‘न जन्में न मरे – सिर्फ 11 दिसंबर, 1931 से 19 जनवरी, 1990 के बीच इस पृथ्वी ग्रह का दौरा किया’।