स्वामी दयानन्द सरस्वती जो कि आर्य समाज के संस्थापक के रूप में पूज्यनीय हैं। जिन्होंने अपने कार्यो से समाज को नयी दिशा एवं उर्जा दी। उन्नीसवीं शताब्दी के महान समाज-सुधारकों में स्वामी दयानंद सरस्वती का नाम अत्यंत श्रध्दा के साथ लिया जाता है। महर्षि दयानंद का जन्म 12 फरवरी 1824 को गुजरात के टंकारा में ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनका जन्म नाम मूल शंकर तिवारी था। बाल्यकाल से ही उन्होंने उपनिषदों, वेदो, धार्मिक पुस्तकों का गहन अध्ययन किया था। महर्षि दयानंद ने अपने जीवन भर ब्रह्मचर्य का पालन किया।
स्वामी जी ने जीवन भर वेदों और उपनिषदों का पाठ किया और संसार के लोगो को उस ज्ञान से लाभान्वित किया। इन्होने मूर्ति पूजा को व्यर्थ बताया। जीवन क्या है? मृत्यु क्या है? इन सवालों के जवाब सक्षम महात्मा से समझ लेना चाहिये, ऐसा उन्हें लगा. इस ध्येय प्राप्ती के लिये उन्होंने 21 साल की उम्र में अपना घर छोड़ा। उन्होंने जातिवाद और बाल-विवाह का विरोध किया और नारी शिक्षा तथा विधवा विवाह को प्रोत्साहित किया। उनका कहना था कि किसी भी अहिन्दू को हिन्दू धर्म में लिया जा सकता है। इससे हिंदुओं का धर्म परिवर्तन रूक गया।
वर्ष 1875 में स्वामी दयानन्द सरस्वती ने आर्य समाज की स्थापना की। 1857 की क्रांति में भी स्वामी जी ने अपना अमूल्य योगदान दिया। अंग्रेजी हुकूमत से जमकर लौहा लिया और उनके खिलाफ एक षड्यंत्र में 30 अक्टूबर 1883 को उनकी मृत्यु हो गई।